Travel

Sunday, March 23, 2014

न जाने क्यों

जब सुनसान एक पहाड़ पर बैठो
तब ज़िन्दगी याद आती है

जब उभरते डूबते सूरज को देखो
तब ज़िन्दगी याद आती है

जब नदियों को पत्थरों से टकराते सुनो
तब ज़िन्दगी याद आती है

जब हवा में पत्तियों को झूलते देखो
तब ज़िन्दगी याद आती है

लेकिन जब ज़िन्दगी जीने की दौड़ में घुसो
तब न जाने, ज़िन्दगी कहाँ खो जाती है

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Written, standing on a hill top, gazing out, with nothing but silence all around.
Like I've said before, there's something about New Year's, Sunsets and Birthdays that make you so reflective.

Friday, March 21, 2014

तू कभी घर से बाहर निकल तो सही

Because sometimes, I need to convince myself to do the things I want...

माना घर में अपनों के होने का एहसास है
बचपन से लेकर अब तक हर लम्हे कि छाँव है
तू उस छाँव की आड़ से बाहर देख तो सही
फ़ाटक के दरवाज़े को ज़रा खोल तो सही
तू कभी घर से बाहर निकल तो सही

माना रास्तों में पत्थर भी हैं, कंकड़ भी
पैरों में काँटों के घुसने के आसार भी
तू उन काँटों को सहने की कोशिश कर तो सही
उबलती रेत को कदमों से महसूस कर तो सही
तू कभी घर से बाहर निकल तो सही

माना रास्ते अक्सर टेढ़े हैं, सीधे नहीं
पलख झपकते योंही कहीं खो जाते कभी
तू खुद रास्ते से भटककर देख तो सही
पहाड़ों में कोई नयी दिशा बना तो सही
तू कभी घर से बाहर निकल तो सही

 माना सफर अकेला है, डरावना भी
चेहरा हर एक नया है, अंजाना भी
तू उस अन्जान से दोस्ती कर के देख तो सही
अपने आप में ज़रा खुद को ढूंढ तो सही
तू कभी घर से बाहर निकल तो सही

माना दूर तक मंज़िल का कोई निशान  नहीं
निशान  क्या, मंज़िल की ना कोई पहचान भी
तू मंज़िल को छोड़, रास्ते में जी कर देख तो सही
घाँस की ठंडी ओंस पर लेटे, तारों को देख तो सही
समुन्दर की लेहरों में कूद तो सही
खुली हवा में साँस ले तो सही
तू कभी घर से बाहर निकल तो सही

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Inspired by the man who loves pyjamas, the fellow poet, and a recent trip.

"I want to travel. You know, the kind where there's no planning, or too much thinking."
"That's the best kind of travel. The only kind, I think. Otherwise, it's a vacation."